कविता : इतिहास की परीक्षा
इतिहास की परीक्षा थी, उस दिन
चिंता से हृदय धड़कता था।
चिंता से हृदय धड़कता था।
जब सुबह से जगा था तभी से,
बायाँ नयन फडकता था।
बायाँ नयन फडकता था।
जो उत्तर मैंने याद किये,
उसमे से आधे याद हुए।
उसमे से आधे याद हुए।
यह भी विद्यालय पहुँचने तक,
यादों में ही बर्बाद हुए।
यादों में ही बर्बाद हुए।
जो सीट दिखाई दी खाली,
उसपे जा डट कर बैठ गया।
उसपे जा डट कर बैठ गया।
एक निरीक्षक कमरे में आईं,
इठलायीं, बोली
इठलायीं, बोली
रे रे तेरा, ध्यान किधर है!
क्योँ कर के आया है देरी
तू यहाँ कहाँ आ बैठा,
उठ जा यह कुर्सी है मेरी।
क्योँ कर के आया है देरी
तू यहाँ कहाँ आ बैठा,
उठ जा यह कुर्सी है मेरी।
मैं उछला एक छक्के सा
मुझ में कुर्सी में मैच हुआ।
मुझ में कुर्सी में मैच हुआ।
चकरा टकरा कर फिर कहीं
एक कुर्सी द्वारा कैच हुआ।
एक कुर्सी द्वारा कैच हुआ।
पर्चे पर मेरी नज़र पडी
तो सारा बदन पसीना था।
तो सारा बदन पसीना था।
फिर भी पर्चे से डरा नहीं
यह तो मेरा ही सीना था।
यह तो मेरा ही सीना था।
उत्तर के यह ऊँचे पहाड़
मैंने,टीचर की ओर ढकेल दिए।
लाचार पुरानी ऐनक से वह
इतिहास नया क्या पढ़ पाती।
मैंने,टीचर की ओर ढकेल दिए।
लाचार पुरानी ऐनक से वह
इतिहास नया क्या पढ़ पाती।
उसके इतिहास के परे,
मेरा इतिहास का भूगोल हुआ।
ऐसे में फिर होना क्या था
नंबर मेरा गोल हुआ।
मेरा इतिहास का भूगोल हुआ।
ऐसे में फिर होना क्या था
नंबर मेरा गोल हुआ।
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